सोमवार, 23 मार्च 2009
रिश्ता.......
इस ज़िंदगी इस ज़माने में , कोई मिलता है ,कोई बिछड़ता है !
इस मिलने बिछड़ने की कशमकश में ही तो ,कोई न कोई रिश्ता पिछड़ता है!
रिश्ता बनाना तो आसन हो जाता है ,हमारे लिए
फिर क्यों ? वो रिश्ता सिकुड़ता है !
बस ठंड से कापते उस बच्चे की तरह ,वो रिश्ता यूही ठिठुरता है !
उस ठिठुरते रिश्ते पर, कोई और रिश्ता अपने रहमो करम की चादर को तो ढकता है !
लेकिन ..........
फिर भी उस चादर में से बारिश का पानी बूँद बनकर टपकता है !
ज़िंदगी में हर चीज़ को यू आसानी से पा लेना आसन तो नही होता ,
लेकिन ज़िंदगी है ,और इस ज़िंदगी में हर कोई हर किसी चीज़ के लिए भटकता है !
रिश्ता बनने की आस तो हर मन में होती है ,
लेकिन ............
जब रिश्ता टूटता है, तो फिर क्यों एक बूँद आंसू आंख से टपकता है !जी हा बिल्कुल वैसे ही ,
जैसे तेज़ भूख से एक छोटा बच्चा बिलखता है !
यह भूख न जाने कब शांत होगी ? बड़ा मुश्किल सवाल यह लगता है !
और
जीवन मेरा क्यों मुझे एक जंजाल सा लगता है ? इस जंजाल से निकलने को अब मेरा मन भी करता है !
लेकिन .............
रस्मो की दीवारों से फिर मेरा मन क्यों डरता है ?
शायद इसी लिए तो इस मिलने बिछड़ने की कशमकश में कोई न कोई रिश्ता पिछड़ता है !
1 टिप्पणियाँ
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5 टिप्पणियां:
जिंदगी में बनते बिगडे ...मिलते बिछुड़ते रिश्तों की कशमकश को बहुत अच्छी तरह लिखा है आपने
bhukh jaane kab shant hogi ye to nahi pata ...par jab nahi ikhati to ...bhukh badh jaati hai ...
प्रसंशनीय व प्रभावशाली अभिव्यक्ति है।
riste to udte panchhi ki tarah hote hain.mere khayal se koi bandish aur simayein nahi honi chahiye.jinke beech rishta ban raha hai agar we aisi baaton ko mante hain to kahin na
kahin unka ek doosare ke prati samarpan bahv kam hai.
Rachna ki abhivakti adwitiya hai.
Navnit Nirav
richa ,
main ek suggestion de raha hoon .
poem bahut acchi hai , thoda re-compose karo , kuch additional se words hai ,jo emotional flow ko slow kar dete hai aur abhivyakti poori tarah se express nahi ho paati , agar re owrk kar sako to nisandeh roop se ye aapki sabsi acchi poem hongi ..
krupya ise alochana na samjhe .. sirf ek prayaas hai .. aapke bheetar ki lekhika ko aur behtar lekhan ke liye prerit karne ke liye..
dhanywad.
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