शुक्रवार, 13 मार्च 2009

मैं लड़की एक !!!


मैं लड़की एक
मगर
मेरे जीवन में सागर की तरह लहरें अनेक
पैदा होते ही पहले माँ को मिले अनेक ताने
दादी भी मेरी ढूंढती रही
मुझे डाटने - मारने के अनेक बहाने
गलती चाहे किसी की भी हो
उसका श्रय मुझे को जाता
हर कलह की जड़ो में नाम मेरा ही आता
जैसे - जैसे
बड़ी हुई सोचा पाठशाला हम भी जायेंगे
मगर
हम भूल गए की अपने घरवालो को कैसे मनाएंगे
मानो
घर की चार दीवारी मेरी पाठशाला
और
चूलाह - चौका मेरी कलम और किताबे बन गया |
जिसपर मैं लिखती रही और मिटाती रही |
गुडिया - गुड्डो से खेलना ऐसा छूटा
मनो
कभी खेला ही ना हो!
बस मैं देखती रही और उम्र का ये पड़ाव
कैसे निकल गया?
पता ही नही चला |
हां !मुझे याद है
जब पहली बार तेरह - चोदह की उम्र में मैंने माँ की साड़ी
चोरी से पहनी थी
बस उस दिन से ही मैं अपने घरवालो की नजरो में सयानी ठहरी थी |
उस दिन मुझे मेरी माँ ने समझाया
मेरा कर्तव्य
मेरा धर्म
और कहा बेटी
मर्यादा में ही रहना है तेरा सबसे बड़ा कर्म |
मनो घर की चार दीवारी से बाहर घूमना मेरी मर्यादा की परिधि में ना था
इसलिए
बस घुटती रही
सब सहती रही
ये सब मुझे मेरी माँ से ही तो
विरासत में मिला था|
इसके कुछ समय बाद
मेरा तबादला
दूसरी पाठशाला में कर दिया गया |
जहाँ पहुचकर
कुछ हैरान थी मैं !
और
अपनी इस नई पाठशाला के नियमो से अनजान थी मैं!
लेकिन पाठ तो वही था
बस किरदार बदल गए थे |
जिसे मैं पढ़ती रही !
दोहराती रही !
समय के साथ - साथ उम्र का ये पड़ाव भी बीत गया|
अब मैं पत्नी की परिधि से निकलकर
माँ
बन चुकी थी |
पति और पुत्र के बीच की सीमा में पीसती रही,
मैं उस परिधि की दीवारों से सर पीटती रही
चीखती रही !
चिल्लाती रही ! मनो एक अनंत खाई में गिरती रही
देखती रही !
धसती रही !
आज मैं अकेली इस राह पर खड़ी हूँ
ना पति रहा ,
ना पुत्र मेरे पास है,
उस पगले का अपना अलग समाज है |
मैं क्यों जियू?
किसलिए
जियू ?
मेरे मन में यही खलास है |
मगर सागर की लहरों की तरह मुझमे भी बची कुछ आस है|
अपने को पहचानना ही बना ,
अब मेरी नई तलाश है |

3 टिप्‍पणियां:

नवनीत नीरव ने कहा…

It is a nice expression.Poem is very good.

mark rai ने कहा…

अपनी इस नई पाठशाला के नियमो से अनजान थी मैं,लेकिन पाठ तो वही था ,
बस किरदार बदल गए थे जिसे मैं पढ़ती रही दोहराती रही .....
beautiful meaningful lines...
if possible remove word varification...

अनिल कान्त ने कहा…

सच को बड़ी बेबाकी से शब्दों में बाँधा है आपने