शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

मौत .................

मौत नही है ....
कोई कागज़ का टुकडा ,
जिस पर कुछ लिख कर मैं ,
मिटा दूँ !

मौत नही है
धूल का उड़ता हुआ, वो कण
जिसे अपने चेहरे से ,पोंछ कर
मैं मिटादू दूँ !

मौत नही है ,कोई
आकाश का उड़ता हुआ ,पंछी
जिसे पकड़कर सलाखों के पीछे
दबा दूँ !

मौत नही है ,अल्हड़ बचपन
जिसे ममता की छांव तले
मैं सुला दूँ !

मौत नही है
दीवार पे लगा हुआ पोस्टर
जिसे मैं अलग -अलग रंगो से ,
सजा दूँ !

मौत नही है , दिए की डगमगाती हुई लौ
जिसे हवा के तेज़ झोको से ,
मैं बचा लू !

मौत तो जीवन की वो अविरल सच्चाई है !
जो आदि से अंत तक निरंतर चलती आई है !

शनिवार, 23 मई 2009

एक कहानी

एक कहानी मैं लिखती हू , एक कहानी तू भी लिख !
बादल बादल मैं लिखती हू ,पानी पानी तू भी लिख|

बीत गई जो अपनी यादें,उन यादों को भी तू लिख!
एक निशानी मैं लिखती हू, एक निशानी तू भी लिख|

इस कलम में डाल के स्याही, लिख दे जो मन में आए!
नई कहानी मैं लिखती हू ,एक पुरानी तू भी लिख |

जीवन की इस भाग दौड़ में, क्या खोया तुमने हमने?
एक जवानी मैं लिखती हू, एक जवानी तू भी लिख |

हर व्यक्ति में छिपा हुआ है,वादी भी प्रतिवादी भी!
सारी सजाए मैं लिखती हू, काला पानी तू भी लिख |

शुक्रवार, 8 मई 2009

रिश्ता.......

इस ज़िंदगी इस ज़माने में , कोई मिलता है ,कोई बिछड़ता है !
इस मिलने बिछड़ने की कशमकश में ही तो ,कोई न कोई रिश्ता पिछड़ता है!
रिश्ता बनाना तो आसन हो जाता है ,हमारे लिए
फिर क्यों ? वो रिश्ता सिकुड़ता है !
बस ठंड से कापते उस बच्चे की तरह ,वो रिश्ता यूही ठिठुरता है !
उस ठिठुरते रिश्ते पर, कोई और रिश्ता अपने रहमो करम की चादर को तो ढकता है !
लेकिन ..........
फिर भी उस चादर में से बारिश का पानी बूँद बनकर टपकता है !
ज़िंदगी में हर चीज़ को यू आसानी से पा लेना आसन तो नही होता ,
लेकिन ज़िंदगी है ,और इस ज़िंदगी में हर कोई हर किसी चीज़ के लिए भटकता है !
रिश्ता बनने की आस तो हर मन में होती है ,
लेकिन ............
जब रिश्ता टूटता है, तो फिर क्यों एक बूँद आंसू आंख से टपकता है !जी हा बिल्कुल वैसे ही ,
जैसे तेज़ भूख से एक छोटा बच्चा बिलखता है !
यह भूख न जाने कब शांत होगी ? बड़ा मुश्किल सवाल यह लगता है !
और
जीवन मेरा क्यों मुझे एक जंजाल सा लगता है ? इस जंजाल से निकलने को अब मेरा मन भी करता है !
लेकिन .............
रस्मो की दीवारों से फिर मेरा मन क्यों डरता है ?
शायद इसी लिए तो इस मिलने बिछड़ने की कशमकश में कोई न कोई रिश्ता पिछड़ता है !

गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

क्यों आज मैंने देखा ?



आज
मैंने
अपने अन्दर
झाँक कर देखा !
एक आदर्श मानवता को
भय से कांपते देखा
जो था बहार वैसा मैं अपने भीतर न था
ऐसा मैंने ख़ुद को ख़ुद से आंक के देखा !

मैंने पुछा अपने मैं से
बतला दो भय तुमको किसका
उसने कहा मुझे जो भय है
तेरे सिवा और हो सके है किसका

आगे उसने यूँ कुछ बोला
अपना था ,हर भेद भी खोला
उसने है मुझे जब जब पुकारा
मैंने था उसको धुतकारा
उसने मुझे पल पल समझाया
लेकिन उसे मैं समझ ना पाया
उसने कहा यह काम ग़लत है
मैंने कहा ये वीरम ग़लत है
उसने हर अन्धकार में मेरे रोशनी के थे दिए जलाए
मैं था पागल मंदबुधि प्राणी
समझ न पाया अपने मैं की वाणी

आज मुझे जब होश है आया
हर भय
दुःख
तकलीफ से मैंने पलभर में ही पार है पाया

पछतावा है मुझको अब ये
इतने दिन बाद क्यों देखा ?

इससे पहले, क्यों नही मैंने अपने अन्दर ऐसे झाँक के देखा ???

भूख .....



किसी ने मुझसे पूछा , भूख क्या होती है ?
तो मैंने कहा ......

अमीर को अपनी अमीरी बढाने की भूख ,
गरीब को अपनी फकीरी घटने की भूख ,
व्यक्ति को व्यक्ति दबाने की भूख ,
उनके हाथो की रोटी छीनकर खाने की भूख ,
एक प्रेमी को है ,सच्चा प्यार पाने की भूख ,
अपना सर्वस्व उस पर लूटाने की भूख |

सच यही तो है, इस पागल ज़माने की भूख !
अपनी इस भूख में सब भूल जाने की भूख !

एक बच्चे को माँ का दूध पाने की भूख
उसकी छाया में सब भूल जाने की भूख
शक्ति से शक्ति बढाने की भूख
इस अंधेरे में सबको काटकर खाने की भूख |

सच यही तो है ,इस पागल ज़माने की भूख !
अपनी इस भूख में सब कुछ भूलाने की भूख !

लेखक को शब्द जोड़कर रखने की भूख ,
नेता को शब्द तोड़कर बकने की भूख ,
रेगिस्तान में प्यासे को एक बूँद चखने की भूख ,
एक भूखे को भूखे पर लात रखने की भूख |

समाज में औरत को नोंच कर खाने की भूख ,
स्त्री को अपना मान बचाने की भूख ,
किसी को है ,इज्ज़त कमाने की भूख ,
किसी को है इज्ज़त गवाने की भूख |

सच यही तो है इस पागल ज़माने की भूख !
अपनी इस भूख में सब कुछ भूलाने की भूख !

शायद मैं उसे समझा पाई हूँ , की क्या होती है भूख ?

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

सिर्फ़ तुम .........




एक निर्मल ,कोमल, प्यारा ,एहसास हो तुम
जीवन के मरू की तीव्र प्यास हो तुम !
बेचैनी का सुकून हो तुम
इस जीवन का जुनून हो तुम
एक नन्हें प्यारे बचपन सा एहसास हो तुम !

* आवेग का बहता निश्छल नीर हो तुम
किसी डूबते को थामता तीर हो तुम !
प्रेम का आगाध सागर हो तुम !
एक अल्हड़ ,चंचल , बचपन की गागर हो तुम !

एक साधक की आस्था हो तुम !
जीवन की असीम पराकाष्ठा हो तुम !
प्रात: कालीन भोर हो तुम
चाँद और चकोर हो तुम !

बंसी की तान हो तुम
सभी सुरों का गान हो तुम !
सम्पूर्णता का समग्र ज्ञान हो तुम
अपने अस्तित्व का सम्मान हो तुम !

उस दिए का प्रकाश हो तुम !
मेरा सारा आकाश हो तुम !
एक आस हो तुम एहसास हो तुम !
इस दुनिया में कुछ ख़ास हो तुम !
मेरे दिल के कितने पास हो तुम !

एक बेबस का इमान हो तुम !
एक पंछी की उड़ान हो तुम !
और बस इतना ही की मेरे जीवन की पहचान हो तुम !!

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

मेरा अस्तित्व



जब भी मैं अपने घर की , चार दीवारों से बाहर झांकती हूँ !
मुझे वो आँखे घूरती है |घूरती है और मुझसे पूछती है,
कहाँ गए वो वादे ? कहाँ है वो इरादे ?

जो बात करते थे तेरे सम्मान की , जो बात करते थे तेरे स्वाभिमान की,
उन वादों इरादों के बाद भी तू कैद है ! कैद है उस जेल में जिसमें तुझे कभी न ख़त्म होने वाली सज़ा मिली है ,
तू बस जी रही है और अपने ही आंसू हँसकर पी रही है|
मगर मैं पूछती हूँ तुझसे,क्या ये इंतज़ार ठीक है ? क्या ये एतबार ठीक है ?
क्या तुझे तेरे जीवन को जीने की इजाज़त दूसरो से मिलेगी ?
क्या तुझ पर हकुमत हमेशा दूसरो की रहेगी? क्या तेरी पहचान दूसरो से बनेगी ?
क्या इसके बिना ये जिंदगी बिल्कुल नही चलेगी ?

वो आंखें मुझे घर की चार- दिवारी ... में भी घूरती है !
घूरती है और बार - बार वही पूछती है , की क्या तेरा कोई अस्तित्व नही ?
क्या तेरा कोई व्यक्तित्व नही ? क्या पहचान है , तेरी !

क्या तू केवल मात्र नाम की देवी है ? या फिर केवल भोग और काम की देवी है?
वो आँखें मुझे शर्मिन्दा करती है , लगता है वो मेरी निंदा करती है!

मेरा इन आंखो की पहुँच से दूर भागने का प्रयास ,
मुझे वाजिब दूरी पर तो लाकर खड़ा कर देता है ,
लेकिन मैं नही जानती क्यों है यह घुटन ? क्यों है मेरे जीवन में संकुचन ?
मैं दौड़ती हूँ , और देखती हूँ ! देखती हूँ , और पाती हूँ !
की यही तो मेरा अस्तित्व है जो पूछ रहा है मुझसे
''कहाँ है तेरी पहचान ? , ''कहाँ है तेरा सम्मान|????????

मंगलवार, 31 मार्च 2009

पाक हंसा , मगर किसपर ?


पाकिस्तानी गृह मंत्री ,भारत पर हँसकर चुटकी ले ही लिए
और भईया
हम सबको ये कह ही दिए
हमने तो चार घंटे में हालात काबू में किए
फिर क्यों
भारत ने चार दिन, यूँ बरबाद कर दिए ?
अपने भावो में मंत्री जी यूँ बहते गए
और आगे- आगे
कुछ यूँ कहते गए!
जैसे ही मैंने घटना के बारे में था जाना!
कर दिया पाकिस्तानी रेंजर्स को तुरत रवाना
नही तो पड़ सकता था हमें, इसका बड़ा खामियाजा उठाना
हाँ- हाँ जी मैंने सही समय पर हालात की नजाकत को जाना
और कर दिया उन्हें उसी और रवाना |
नही चाहिए था, भारत को यूँ वक्त गवाना |
आगे यह दलील भी रख दिए
और
मीडिया के आगे कुछ इस तरह से बक दिए ,
पाक भी आतंकवादी लहर का निशाना बन रहा है |
जो था बनाया जहर
तुम्हारे लिए ,
उसे अब ख़ुद पाक निगल रहा है|
लेकिन मंत्री जी हमें ये तो बताओ
जब श्री लंकाई टीम को पाक में था आना
फिर क्यों पड़ा
लोगो को अपनी जान गवाना
मार्च सत्ताईस को मिला हमें एक और बहाना
क्यों? क्या जरूरी नही था,फिदायीन हमले से
सत्तर और जानो को बचाना ?
वाह- वाह आपने क्या हालात की नजाकत को जाना ?
बहुत खूब आज आपने पाकिस्तानी अखंडता को खूब पहचाना और भारतीय अस्मिता को नाकारा माना ?
अब पाकिस्तान बावले टटू की तरह बिचल रहा है
शायद उसे डर है ,
की वो वर्ल्ड मैप से ,
ताश के पत्तो की तरह फिसल रहा है|
इस तरह कह दिया मंत्री जी ने अपना फसाना !
शायद उनका मन मकसद था मीडिया की सुर्खियों पर छा जाना |
वाह मंत्री जी तुम्हे तो कतई पसंद नही है वक्त गवाना |

रविवार, 29 मार्च 2009

अन्मिले शितिज






आज लद कर चल दिया
काँधे पर ये शव मेरा ,
जिन पर खेलकर बीता था ,
नन्हा सा शेशव मेरा !

माँ मेरी मुझे जिस छाती से
लगाए सुलाती थी ,
लोरी गाती थी ,
आज उसी छाती को पीट रही है
उठ बेटी !उठ जाना बेटी , बोल रही है

शायद ये सोचकर की उसका रुदन मेरी आँखें खोल दे !
मगर माँ को मैं ये कैसे समझाऊ ,
मैं सोई हूँ , अपने नए कल को अपनी आँखों में दबाए
अब यह सम्भव नही की
कोई मुझे
इस नींद से जगाए !

माँ तुझे मैं कैसे ये बतलाऊ ,
मैं
हर सुख - दुःख ,दर्द से बहुत दूर हूँ ,
उतनी ही दूर
जितनी दूरी पर चाँद मेरे बचपन से था |

मैं निश्चिंत हूँ माँ ,
मैं निश्चिंत हूँ !
क्योकि
अपनी थाह को मैंने ,
अथाह में समा लिया है !
अब धरती और चाँद को ,
अपनी गोद मैं छिपा लिया है !

माँ मैं चल पड़ी हूँ उस राह पर जहाँ सुकून है
शान्ति है ,
उज्जवलता है ,
निर्मलता है ,
यहाँ कोई हलचल नही है ,
हाँ
माँ
कौई हलचल नही है !

बस हैरत मैं हूँ , ये देखकर !
हाँ हैरत मैं हूँ !
यहाँ चाँद ज़मी चूमता और लाशें साँस लेती नज़र आती है |

सोमवार, 23 मार्च 2009

रिश्ता.......


इस ज़िंदगी इस ज़माने में , कोई मिलता है ,कोई बिछड़ता है !
इस मिलने बिछड़ने की कशमकश में ही तो ,कोई न कोई रिश्ता पिछड़ता है!
रिश्ता बनाना तो आसन हो जाता है ,हमारे लिए
फिर क्यों ? वो रिश्ता सिकुड़ता है !
बस ठंड से कापते उस बच्चे की तरह ,वो रिश्ता यूही ठिठुरता है !
उस ठिठुरते रिश्ते पर, कोई और रिश्ता अपने रहमो करम की चादर को तो ढकता है !
लेकिन ..........
फिर भी उस चादर में से बारिश का पानी बूँद बनकर टपकता है !
ज़िंदगी में हर चीज़ को यू आसानी से पा लेना आसन तो नही होता ,
लेकिन ज़िंदगी है ,और इस ज़िंदगी में हर कोई हर किसी चीज़ के लिए भटकता है !
रिश्ता बनने की आस तो हर मन में होती है ,
लेकिन ............
जब रिश्ता टूटता है, तो फिर क्यों एक बूँद आंसू आंख से टपकता है !जी हा बिल्कुल वैसे ही ,
जैसे तेज़ भूख से एक छोटा बच्चा बिलखता है !
यह भूख न जाने कब शांत होगी ? बड़ा मुश्किल सवाल यह लगता है !
और
जीवन मेरा क्यों मुझे एक जंजाल सा लगता है ? इस जंजाल से निकलने को अब मेरा मन भी करता है !
लेकिन .............
रस्मो की दीवारों से फिर मेरा मन क्यों डरता है ?
शायद इसी लिए तो इस मिलने बिछड़ने की कशमकश में कोई न कोई रिश्ता पिछड़ता है !
1 टिप्पणियाँ

अगर तुम औरत हो !

अगर तुम
औरत हो ?
तो जब तुम सड़क पर
चलोगी ,
तो लोग तुम्हे मुड मुड़कर
जरूर देखेंगे !
अपनी आँखों से तुम्हारे
कपड़े नोचकर
अन्दर जरूर झाकेंगे !
कुछ पीछे भी आयेंगे !
कुछ मनचले आशिकी के
गाने भी गाएंगे ,
अब ये तुम्हारे ऊपर है ,
की तुम
अपने रास्ते पर आगे चलोगी
या फिर
उनके डर से
अपनी राहे ही बदल लोगी ???

शुक्रवार, 20 मार्च 2009

तेरे जैसा जन मानस में हुआ ना होगा दिलवाला ,
पहेले नेता फिर सन्यासी फिर से भेष बदल डाला
कर्मचारी को ख्वाब दिखाया एक चार छियासी का ,
अपनी खाली जेबे भरली खेला खेल मदारी का
जैसी करनी वैसी भरनी ,जेल गया वर्दी वाला
पहेले नेता फिर सन्यासी ,फिर से भेष बदल डाला
सन्यासी का ढोंग रचाया फिर निकले जन सेवा को
जनसेवा भी रास ना आई , उल्टे बांस बरेली को
जनसेवा में क्या रखा है , यूँ बोले ढोंगी बाबा
पहेले नेता फिर सन्यासी , फिर से भेष बदल डाला
बाहुबलियों ने मिल करके पूरब को ललकारा है
खट्टे इनके दांत करेंगे ये संकल्प हमारा है
शैत्रवाद नही मकसद मेरा , नही कोई मुद्दा छोड़ा ,
सबको लेकर साथ चलूँगा ब्रिजेश उपाद्याय यूँ बोला
पहेले नेता फिर सन्यासी फिर से भेष बदल डाला
ग्यारह हजार करोड़ रुपए के लालच में भरमाया है
बनके फिर हमदर्द हमारा फिर वाही लुटेरा आया है
खून किया जिसने यकीन का ,प्रहरी था वो घर वाला
पहेले नेता फिर सन्यासी फिर से भेष बदल डाला
चंदर मोहन से चाँद मोहमद फिजा मोहमद हुई बाली
संत स्वरूपा नन्द की आभा मनमोहक थी मतवाली
समरथ को नही दोष गोसाई जब चाहा मन रंग डाला
पहेले नेता फिर सन्यासी फिर से भेष बदल डाला
बड़े बुजुर्गो ने सदियों से हमको ये बतलाया है
झूठ पे होती जीत सत्य की , ऐसा हमें बताया है
अनुभव करो सत्य पहचानो , साईं वचन भी ये बोला
पहेले नेता फिर सन्यासी फिर से भेष बदल डाला

शनिवार, 14 मार्च 2009

हाँ मैंने सुना था !!!



हाँ मैंने सुना ,किसी को
ये कहते हुए !
क्यों ? आई वो धारा पर
कैसे ? आई वो धारा पर
जब कोई देखना ही नही चाहता ,
तुझे हँसते हुए !

हाँ ! मैंने सुना
माँ ,
की कोख में ही
बैठे हुए ,
अपने पिता को
उससे
ये सब कहते हुए ,
की जब उन्होंने मेरे बारे में जाना
अपना सर पीट
ख़ुद को अभागा माना !
इस बार भी पड़ेगा ,
ये बच्चा गिराना ,
हाय ! माँ
उन्होंने
ख़ुद को कितना अभागा माना |

मगर
तू तो मुझसे
पल - पल जुड़ी थी ?
माँ
मुझे बता
मेरा तेरी कोख में होना
तेरे लिए कैसी घड़ी थी ?

माँ
मगर मैं
जानती हूँ
तू भी बाबूजी के साथ ही खड़ी थी
क्योकि
अगर तेरी ममता मेरे पास होती
तो
आज मैं
माँ
तेरे ही साथ होती |

हाँ मैंने सुना !
तुझे भी ये कहते हुए ,
बेटा वंश बेली को आगे बढ़ाएगा !
इसे तो कोई दूसरा अपने घर ले जायेगा !
फिर
हमारा अपना यहाँ कौन रह जायेगा !
हाँ !
हाँ !
बेटा ही वंश को आगे बढ़ाएगा

लेकिन
बापू
एक बार मुझे अपनी गोद में खिलाया तो होता !
माँ मुझे एक बार अपना दूध पिलाया तो होता !
अपनी ममता से मुझे भी सहलाया तो होता !
बस मैं जोड़ लेती
तुझसे अपना रिश्ता
जिसे फिर कोई ना तोड़ पाता !

बस
एक बार ,
प्यार से ,
मुझ अभागी को अपनाया तो होता !


मगर अब काँप उठता है ,
मन
सिर्फ़
ये सोचते हुए ,
हाँ मैंने सुना था !
उन्हें ये कहते हुए
क्यों आई वो धरा पर ?
कैसे आई वो धारा पर ?

जब कोई देखना ही नही चाहता तुझे हँसते हुए !

शुक्रवार, 13 मार्च 2009

मैं लड़की एक !!!


मैं लड़की एक
मगर
मेरे जीवन में सागर की तरह लहरें अनेक
पैदा होते ही पहले माँ को मिले अनेक ताने
दादी भी मेरी ढूंढती रही
मुझे डाटने - मारने के अनेक बहाने
गलती चाहे किसी की भी हो
उसका श्रय मुझे को जाता
हर कलह की जड़ो में नाम मेरा ही आता
जैसे - जैसे
बड़ी हुई सोचा पाठशाला हम भी जायेंगे
मगर
हम भूल गए की अपने घरवालो को कैसे मनाएंगे
मानो
घर की चार दीवारी मेरी पाठशाला
और
चूलाह - चौका मेरी कलम और किताबे बन गया |
जिसपर मैं लिखती रही और मिटाती रही |
गुडिया - गुड्डो से खेलना ऐसा छूटा
मनो
कभी खेला ही ना हो!
बस मैं देखती रही और उम्र का ये पड़ाव
कैसे निकल गया?
पता ही नही चला |
हां !मुझे याद है
जब पहली बार तेरह - चोदह की उम्र में मैंने माँ की साड़ी
चोरी से पहनी थी
बस उस दिन से ही मैं अपने घरवालो की नजरो में सयानी ठहरी थी |
उस दिन मुझे मेरी माँ ने समझाया
मेरा कर्तव्य
मेरा धर्म
और कहा बेटी
मर्यादा में ही रहना है तेरा सबसे बड़ा कर्म |
मनो घर की चार दीवारी से बाहर घूमना मेरी मर्यादा की परिधि में ना था
इसलिए
बस घुटती रही
सब सहती रही
ये सब मुझे मेरी माँ से ही तो
विरासत में मिला था|
इसके कुछ समय बाद
मेरा तबादला
दूसरी पाठशाला में कर दिया गया |
जहाँ पहुचकर
कुछ हैरान थी मैं !
और
अपनी इस नई पाठशाला के नियमो से अनजान थी मैं!
लेकिन पाठ तो वही था
बस किरदार बदल गए थे |
जिसे मैं पढ़ती रही !
दोहराती रही !
समय के साथ - साथ उम्र का ये पड़ाव भी बीत गया|
अब मैं पत्नी की परिधि से निकलकर
माँ
बन चुकी थी |
पति और पुत्र के बीच की सीमा में पीसती रही,
मैं उस परिधि की दीवारों से सर पीटती रही
चीखती रही !
चिल्लाती रही ! मनो एक अनंत खाई में गिरती रही
देखती रही !
धसती रही !
आज मैं अकेली इस राह पर खड़ी हूँ
ना पति रहा ,
ना पुत्र मेरे पास है,
उस पगले का अपना अलग समाज है |
मैं क्यों जियू?
किसलिए
जियू ?
मेरे मन में यही खलास है |
मगर सागर की लहरों की तरह मुझमे भी बची कुछ आस है|
अपने को पहचानना ही बना ,
अब मेरी नई तलाश है |

गुरुवार, 12 मार्च 2009

दोस्ती !


कितनी अजीब है , ये दोस्ती !
दो आत्माओ के बीच , एक शरीर है , ये दोस्ती !
एक अनोखा बन्धन है , दोस्ती
मेरे शरीर की धमनियों का स्पंदन है , ये दोस्ती !
मेरी मित्र है वो पर , दुनिया से थोडी विचित्र है , वो
जिस पर दुनिया की नज़र है, उसके लिए वो बिल्कुल बेअसर है|
हर चीज़ पर उसकी पकड़ है , हर किसी पर उसकी जकड है|
मैं देखकर उसे जी लेती हूँ !
और कभी - कभी अपने ही आंसू ,
हँसकर पी लेती हूँ!
उसके विचारो से लगता है ,ये आधी ज़मी भी मेरी है
ये आधा आसमा भी मेरा है और व्यक्ति जब ये ठान ही ले ,
तो कर लेता हर जगह सवेरा है!
मैं हर नई सुबह जागती हूँ ,
और कॉलेज में उससे मिलने को भागती हूँ ,
अपनी बात बताती हूँ उसे, उसकी
बात समझ जाती हूँ मैं!
हर चीज़ में संतुष्टि समाई है उसकी ,हर चीज़ में नाज़कात उभर के आई है उसकी
इस दिल की अभिलाषा इतनी ,
बन पाऊ परछाई उसकी !
बहुत सुंदर उसकी काया है, उससे भी सुंदर छाया है!
कुदरत की अदभुत माया है ,और बस इतना ही
की अपने जीवन का सच्चा आदर्श मैंने, उसी में पाया है!
उसके बोल मेरी आत्मा में घुलके, जीने की तमन्ना पैदा करते है ,
वो कहती रहे मैं सुनती रहू खुदा से बस इतनी ही दुआ करते है !
वो एक ऐसा दर्पण है ,जिसपर मेरा सर्वस्व समर्पण है ,
ईश्वर पर चढ़े उस फूल की तरह ये जीवन उसको अर्पण है!
मैं जैसी अपने भीतर हूँ वैसे ही ख़ुद को पाती हूँ ,
अपने भीतर की कमियों को सहजता से जान जाती हूँ
मैं शुक्रगुजार हूँ उसकी जिसने दोस्ती जैसी चीज़ बनाई ,
ये दोस्ती उतनी ही पाक है ,जितनी खुदा की खुदाई,
इस दुनिया में बहुत खुश नसीब हूँ मैं जो तुम जैसी मैंने दोस्त है पाई !

सोमवार, 9 मार्च 2009

ज़िन्दगी !


पता नही की मैंने किसी को क्या समझा दिया
क्या है , ये ज़िन्दगी ये मुझे दुनिया ने बता दिया
सोचता था
इस खुशनुमा तोहफे को जीने की
पर इस तोहफे को
किस्मत ने सलीब में बदल दिया
क्या करू ?
किसी गैर से उम्मीद
जब मेरे अपनों ने ही
मुझे ठुकरा दिया|
मेरे दिल की आवाज़ सुन ना सका कोई ,
किस्मत ने शायद सबको बहरा बना दिया |
हर बार समझौता करता आया ,अपनी हसरतों से
की ख़ुद को एक समझौता बना दिया |
क्या करू ज़िन्दगी से उम्मीद अब
मेरे हालातो ने मुझे
अब जिंदा लाश जो बना दिया !
मेरी इबादत भी मेरे काम न आई फैज़
की इस दुनिया ने मुझे काफिर ही बना दिया |

शनिवार, 7 मार्च 2009

उनका मन !


उनके लिए रिश्ता जोड़ना और तोड़ना
एक खेल था
जब उनका मन चाहा खेल ,
खेल लिया और जब चाहा बीच में रोक दिया
और कह दिया अब बस ,बहुत हुआ अब मज़ा नही आ रहा
जब उनका मन चाहा
अम्बर पर बैठा दिया हमें
जब जी चाहा वाही से गिरा दिया हमें
जब मन हुआ कहा स्वागत है आपका मेरे दिल के दरबार में
जब मन हुआ कहा ,क्या काम है तुम्हारा मेरे संसार में
हाँ याद है ,मुझे उस दिन हाथ थामकर कहा था उन्होंने
मैं हूँ हमेशा तुम्हारे साथ
फिर
ऐसा क्या हुआ जो छोड़ गए मुझे वो इस तरह से अनाथ
आज मैं एक नई राह पर खड़ी हूँ ,
फिर
एक नया हाथ मेरा हाथ सहला रहा है
आज
फिर कोई मुझे अपना कहला रहा है !
चलू , रुकू
रुकू ,चलू इसी कशमकश में हूँ क्या एक नई बाज़ी खेलने को मेरा मन भी चाह रहा है |

शुक्रवार, 6 मार्च 2009

पागल!


अरे! यह पागल है , इसे पकडो और सलाखों के पीछे डाल दो
शायद ऐसा ही होता है , किसी भी पागल के साथ ! मगर कभी सोचा है क्यों ?
क्योकि हम अपना चेहरा देखने से कितना डरते हैं |
अरे !बाहर जहाँ हर तरफ़ गंदगी , धोखा ,झूठ फरेब ,और स्वार्थ है ,
जहाँ कदम- कदम पर खून से लथपथ सनी लाशे और उनसे आने वाली सडान रोजाना देखने को मिलती हो ,
उस घुटन से तो वो पागल ही अच्छा है ,जो अपनी दुनिया में ही मस्त रहता है |
जिसके लिए ज़िंदगी और मौत एक बराबर है |जिसमें बहरी दुनिया के लिए कोई हलचल नही है |
अरे! हम जिंदा लाशों से तो वह अबोध पागल ही अच्छा है|

गुरुवार, 5 मार्च 2009

जिंदा लोग ???


मेरे घर के बगल में ,पड़ोसी की मौत हो गई
व्यवहारिकता के नाते ,मैं भी वहां गई
वहा जाकर देखा
कुछ बुद्धिजीवी लोग, कह रहे थे की
जो इस दुनिया - संसार में आया है, उसे जाना ही होगा
और
जो पीछे छूट गया उसे अपना कर्तव्य निभाना ही होगा

जीते जी की हाय हाय है ,भाई
और सब चल दिए ये कहते
राम नाम सत्य है ,भाई
राम नाम सत्य है

और मैं खड़ी बस यही सोचती रह गई कैसे होते है ये जिंदा लोग ?
कही ये वो लोग तो नही
जिनके सामने एक आदमी दूसरे को मारकर निकल जाता है
और यह मुह खोले
केवल ताली बजाकर रह जाते है
पूछने पर कहते है ,की
हम नही थे , हमने नही देखा और [फिर पकड़ कर पतली गली
निकल पड़ते है ,गोली की तरह |

या कही ये वो लोग तो नही जो ये जानते है , की
बाल मजदूरी कानूनन जुर्म है
मगर फिर भी
पकड़ लाते है, बच्चो को पशुओ की तरह और बाँध देते है
घर के खूटे से
जैसे हलाली से पहले बकरा
जी हाँ सही सुना आपने
हलाली
उनके बचपन की
उनके सपनो की |

अरे !कही ये वो लोग तो नही जो औरत को बच्चा जनने की मशीन
और बच्चो को उससे पैदा होने वाला
पसंदीदा उत्पाद समझते है
पहले बेटी नही , बेटा होना चाहिए
अगर गलती से
बेटी हो भी गई तो छोड़ आते है , उसे
किसी नुक्कड़ या चौराहे पर पलने के लिए या
मरने के लिए |

फिर सोचा कही ये वो तो नही जो
अपनी शारीरिक हवस के लिए किसी भी
बहेन- बेटी और माँ को निशाना बनने से नही चूकते और
इनके अंधे नशे का आलम तो देखिये
जब इनकी घिनौनी भूख शांत हो जाती है, तो फिर
बैठ जाते है
नकली मुखौटा लगाकर
चेहरे पर नए शिकार के लिए|

थोड़ा और सोचा तो लगा
कही ये वो तो नही , जो ये जानते है की
देश एक बार फिर से गुलामी की बेडियों में फसता जा रहा है
लेकिन फिर भी झूम रहे है ,पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में

या

कही ये वो तो नही ,जो एक भूखे की रोटी छीनकर खुश होते है,
और
अपने पालतू कुत्ते को जी भर के
खिलाने के बाद !
ये कहते नही थकते ,
इंसान से वफादार तो जानवर होते है |

अगर ऐसे होते है, ये जिंदा लोग तो इससे बेहतर तो मैं मृत प्राय रहना ज्यादा पसंद करुँगी
क्योकि सोते हुए को उठाना आसन है
लेकिन
जो जागकर भी नींद में सोया है
उसे उठाना बहुत मुश्किल है

सही कहा था उसने , राम नाम सत्य है
क्योकि
राम नाम तो तर गया है,
मगर
अफ़सोस
मनुष्य जीते जी भी मर गया है |

बुधवार, 4 मार्च 2009

भारत जाग रहा है !


सुनो भाई ,सुनो
धुआ हट रहा है
देश पर छाया कोहरा
पलों मे छट रहा है

जागो तुम्हे जागना ही होगा
चलो उठो, नींद से
अब नही, बस अब नही
अब जितना साफ़ और तेज़ सूरज है
उतना तुम्हे भी चमकना होगा
अपनी नई आज़ादी के साथ महकना होगा

अब
युद्ध
आतंकवाद
नाकामी
भ्रष्टाचार और सामजिक जड़ता तोड़ दो
तोड़ दो, इस बंधन की क़ैद को
तोड़ दो
अब तक जो भी हुआ उन सब को पीछे छोड़ दो
बस हुंकारा भरो
जय हिंद
जय हिंद
और उठ खड़े हो तुम्हे उठना ही होगा

अब कोई बेटा बिन मौत नही मरेगा
अब कोई बेबस माँ अपनी छाती नही पीटेगी
अब कोई बूढा बाप अपने ही कांधो पर अपनी लाश का बोझा नही ढोएगा

अब भारत जाग रहा है
सुनो भाई भारत जाग रहा है

अब कोई बच्चा अपना नंगा चेहरा नही पहनेगा
अब घर मे छत का पानी नही ठहरेगा
सड़क पर चल रहा बच्चा भीख नही ,
किताबे मांगेगा
हर कोई पढेगा - देश बढेगा

अब भारत जाग रहा है
सुनो भाई भारत जाग रहा है

अब कोई बेटा भारत माँ का सौदा नही करेगा
हर कोई अपने अधिकार और कर्तव्य को निर्वाह करेगा
अब किसी बहेन - बेटी की आबरू नही लुटेगी
अब दहेज़ की बल वेदी टूटेगी

अब सभी मे समता होगी
हर दिल मे प्यार और ममता होगी
अब कोई किसी की रोटी नही छीनेगा
अब देश सिर्फ़
प्रेम
शान्ति
सुख और समृधि
के मोती ही बीनेगा

अब देश जाग रहा है
हर एक व्यक्ति दूसरे के पीछे
जाग्रति मशाल लेकर भाग रहा है
अब भारत जाग रहा है
सुनो भाई भारत जाग रहा है !

अन्मिले शितिज !


आज लद कर चल दिया
काँधे पर ये शव मेरा ,
जिन पर खेलकर बीता था ,
नन्हा सा शेशव मेरा !

माँ मेरी मुझे जिस छाती से
लगाए सुलाती थी ,
लोरी गाती थी ,
आज उसी छाती को पीट रही है
उठ बेटी !उठ जाना बेटी , बोल रही है

शायद ये सोचकर की उसका रुदन मेरी आँखें खोल दे !
मगर माँ को मैं ये कैसे समझाऊ ,
मैं सोई हूँ , अपने नए कल को अपनी आँखों में दबाए
अब यह सम्भव नही की
कोई मुझे
इस नींद से जगाए !

माँ तुझे मैं कैसे ये बतलाऊ ,
मैं
हर सुख - दुःख ,दर्द से बहुत दूर हूँ ,
उतनी ही दूर
जितनी दूरी पर चाँद मेरे बचपन से था |

मैं निश्चिंत हूँ माँ ,
मैं निश्चिंत हूँ !
क्योकि
अपनी थाह को मैंने ,
अथाह में समा लिया है !
अब धरती और चाँद को ,
अपनी गोद मैं छिपा लिया है !

माँ मैं चल पड़ी हूँ उस राह पर जहाँ सुकून है
शान्ति है ,
उज्जवलता है ,
निर्मलता है ,
यहाँ कोई हलचल नही है ,
हाँ
माँ
कौई हलचल नही है !

बस हैरत मैं हूँ , ये देखकर !
हाँ हैरत मैं हूँ !
यहाँ चाँद ज़मी चूमता और लाशें साँस लेती नज़र आती है |

तो क्या हो गया ??????



मुझे मेरे प्यार में धोखा जो मिल गया तो ,
क्या हो गया ?
मेरा जीवन ही बदल गया तो ,
क्या हो गया ?
किससे कहू और क्या शिकायत करू
जो था मेरा ,वो पराया ही हो गया तो
क्या हो गया ?
वो तो चल दिए थामकर हाथ कामियाबी का ऐसे
के , अपनी लाश से सर पीटता मैं रह गया तो
क्या हो गया ?
मेरी सिसकिया भी रोक ना पाई उसे
क्या करू ,बता
मेरे जलने से , रोशन वो हो गया तो
क्या हो गया ?
कभी हँसता था मैं भी ,
दोस्तों पर ठहाको के साथ
आज मैं ,दोस्तों के ठहाको में खो गया तो
क्या हो गया ?
बहुत गुमा था ख़ुद पर, ऐ दोस्त क्या कहू तुझे मैं
आज हम सा नासमझ ना हो गया तो
क्या हो गया ?
चल दिया हूँ मैं
नई राह पर
नए धोखे के साथ
अब वो कहे
की बेवफा ,मैं हो गया तो क्या हो गया
कभी जिया करता मैं भी सुनहले ख्वाब में
वो मेरी रूह को भी मुर्दा कर गया
तो क्या हो गया ?

बहुत दिनों के बाद !


बहुत दिनों के बाद
फिर आई तुम्हारी याद
मन होने लगा उदास
बहुत दिनों के बाद !
रोई ,चीखी, चिल्लाई ऐसे
अन्दर छाया हो मातम जैसे
किसको क्या बतलाऊ कैसे
किससे करू ये बात
बहुत दिनों के बाद !
मन में है, कोलाहल छाया
अपना ख़ुद में कुछ भी ना पाया
फिर से याद आगई मुझको
पहले आलिंगन की रात
बहुत दिनों के बाद !

मन होने लगा उदास
आज फिर
बहुत दिनों के बाद!