शनिवार, 7 मार्च 2009

उनका मन !


उनके लिए रिश्ता जोड़ना और तोड़ना
एक खेल था
जब उनका मन चाहा खेल ,
खेल लिया और जब चाहा बीच में रोक दिया
और कह दिया अब बस ,बहुत हुआ अब मज़ा नही आ रहा
जब उनका मन चाहा
अम्बर पर बैठा दिया हमें
जब जी चाहा वाही से गिरा दिया हमें
जब मन हुआ कहा स्वागत है आपका मेरे दिल के दरबार में
जब मन हुआ कहा ,क्या काम है तुम्हारा मेरे संसार में
हाँ याद है ,मुझे उस दिन हाथ थामकर कहा था उन्होंने
मैं हूँ हमेशा तुम्हारे साथ
फिर
ऐसा क्या हुआ जो छोड़ गए मुझे वो इस तरह से अनाथ
आज मैं एक नई राह पर खड़ी हूँ ,
फिर
एक नया हाथ मेरा हाथ सहला रहा है
आज
फिर कोई मुझे अपना कहला रहा है !
चलू , रुकू
रुकू ,चलू इसी कशमकश में हूँ क्या एक नई बाज़ी खेलने को मेरा मन भी चाह रहा है |

2 टिप्‍पणियां:

mark rai ने कहा…

एक नया हाथ मेरा हाथ सहला रहा है

फिर कोई मुझे अपना कहला रहा है ......

realy you understand feelings and nature of heart.

sk ने कहा…

likhte jao rahi kabhi to manjil milegi,kabhi to kamyabi kadam chumegi, andhere ke baad roshan jahan jarur hoga............