गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

क्यों आज मैंने देखा ?



आज
मैंने
अपने अन्दर
झाँक कर देखा !
एक आदर्श मानवता को
भय से कांपते देखा
जो था बहार वैसा मैं अपने भीतर न था
ऐसा मैंने ख़ुद को ख़ुद से आंक के देखा !

मैंने पुछा अपने मैं से
बतला दो भय तुमको किसका
उसने कहा मुझे जो भय है
तेरे सिवा और हो सके है किसका

आगे उसने यूँ कुछ बोला
अपना था ,हर भेद भी खोला
उसने है मुझे जब जब पुकारा
मैंने था उसको धुतकारा
उसने मुझे पल पल समझाया
लेकिन उसे मैं समझ ना पाया
उसने कहा यह काम ग़लत है
मैंने कहा ये वीरम ग़लत है
उसने हर अन्धकार में मेरे रोशनी के थे दिए जलाए
मैं था पागल मंदबुधि प्राणी
समझ न पाया अपने मैं की वाणी

आज मुझे जब होश है आया
हर भय
दुःख
तकलीफ से मैंने पलभर में ही पार है पाया

पछतावा है मुझको अब ये
इतने दिन बाद क्यों देखा ?

इससे पहले, क्यों नही मैंने अपने अन्दर ऐसे झाँक के देखा ???

भूख .....



किसी ने मुझसे पूछा , भूख क्या होती है ?
तो मैंने कहा ......

अमीर को अपनी अमीरी बढाने की भूख ,
गरीब को अपनी फकीरी घटने की भूख ,
व्यक्ति को व्यक्ति दबाने की भूख ,
उनके हाथो की रोटी छीनकर खाने की भूख ,
एक प्रेमी को है ,सच्चा प्यार पाने की भूख ,
अपना सर्वस्व उस पर लूटाने की भूख |

सच यही तो है, इस पागल ज़माने की भूख !
अपनी इस भूख में सब भूल जाने की भूख !

एक बच्चे को माँ का दूध पाने की भूख
उसकी छाया में सब भूल जाने की भूख
शक्ति से शक्ति बढाने की भूख
इस अंधेरे में सबको काटकर खाने की भूख |

सच यही तो है ,इस पागल ज़माने की भूख !
अपनी इस भूख में सब कुछ भूलाने की भूख !

लेखक को शब्द जोड़कर रखने की भूख ,
नेता को शब्द तोड़कर बकने की भूख ,
रेगिस्तान में प्यासे को एक बूँद चखने की भूख ,
एक भूखे को भूखे पर लात रखने की भूख |

समाज में औरत को नोंच कर खाने की भूख ,
स्त्री को अपना मान बचाने की भूख ,
किसी को है ,इज्ज़त कमाने की भूख ,
किसी को है इज्ज़त गवाने की भूख |

सच यही तो है इस पागल ज़माने की भूख !
अपनी इस भूख में सब कुछ भूलाने की भूख !

शायद मैं उसे समझा पाई हूँ , की क्या होती है भूख ?

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

सिर्फ़ तुम .........




एक निर्मल ,कोमल, प्यारा ,एहसास हो तुम
जीवन के मरू की तीव्र प्यास हो तुम !
बेचैनी का सुकून हो तुम
इस जीवन का जुनून हो तुम
एक नन्हें प्यारे बचपन सा एहसास हो तुम !

* आवेग का बहता निश्छल नीर हो तुम
किसी डूबते को थामता तीर हो तुम !
प्रेम का आगाध सागर हो तुम !
एक अल्हड़ ,चंचल , बचपन की गागर हो तुम !

एक साधक की आस्था हो तुम !
जीवन की असीम पराकाष्ठा हो तुम !
प्रात: कालीन भोर हो तुम
चाँद और चकोर हो तुम !

बंसी की तान हो तुम
सभी सुरों का गान हो तुम !
सम्पूर्णता का समग्र ज्ञान हो तुम
अपने अस्तित्व का सम्मान हो तुम !

उस दिए का प्रकाश हो तुम !
मेरा सारा आकाश हो तुम !
एक आस हो तुम एहसास हो तुम !
इस दुनिया में कुछ ख़ास हो तुम !
मेरे दिल के कितने पास हो तुम !

एक बेबस का इमान हो तुम !
एक पंछी की उड़ान हो तुम !
और बस इतना ही की मेरे जीवन की पहचान हो तुम !!

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

मेरा अस्तित्व



जब भी मैं अपने घर की , चार दीवारों से बाहर झांकती हूँ !
मुझे वो आँखे घूरती है |घूरती है और मुझसे पूछती है,
कहाँ गए वो वादे ? कहाँ है वो इरादे ?

जो बात करते थे तेरे सम्मान की , जो बात करते थे तेरे स्वाभिमान की,
उन वादों इरादों के बाद भी तू कैद है ! कैद है उस जेल में जिसमें तुझे कभी न ख़त्म होने वाली सज़ा मिली है ,
तू बस जी रही है और अपने ही आंसू हँसकर पी रही है|
मगर मैं पूछती हूँ तुझसे,क्या ये इंतज़ार ठीक है ? क्या ये एतबार ठीक है ?
क्या तुझे तेरे जीवन को जीने की इजाज़त दूसरो से मिलेगी ?
क्या तुझ पर हकुमत हमेशा दूसरो की रहेगी? क्या तेरी पहचान दूसरो से बनेगी ?
क्या इसके बिना ये जिंदगी बिल्कुल नही चलेगी ?

वो आंखें मुझे घर की चार- दिवारी ... में भी घूरती है !
घूरती है और बार - बार वही पूछती है , की क्या तेरा कोई अस्तित्व नही ?
क्या तेरा कोई व्यक्तित्व नही ? क्या पहचान है , तेरी !

क्या तू केवल मात्र नाम की देवी है ? या फिर केवल भोग और काम की देवी है?
वो आँखें मुझे शर्मिन्दा करती है , लगता है वो मेरी निंदा करती है!

मेरा इन आंखो की पहुँच से दूर भागने का प्रयास ,
मुझे वाजिब दूरी पर तो लाकर खड़ा कर देता है ,
लेकिन मैं नही जानती क्यों है यह घुटन ? क्यों है मेरे जीवन में संकुचन ?
मैं दौड़ती हूँ , और देखती हूँ ! देखती हूँ , और पाती हूँ !
की यही तो मेरा अस्तित्व है जो पूछ रहा है मुझसे
''कहाँ है तेरी पहचान ? , ''कहाँ है तेरा सम्मान|????????