रविवार, 29 मार्च 2009

अन्मिले शितिज






आज लद कर चल दिया
काँधे पर ये शव मेरा ,
जिन पर खेलकर बीता था ,
नन्हा सा शेशव मेरा !

माँ मेरी मुझे जिस छाती से
लगाए सुलाती थी ,
लोरी गाती थी ,
आज उसी छाती को पीट रही है
उठ बेटी !उठ जाना बेटी , बोल रही है

शायद ये सोचकर की उसका रुदन मेरी आँखें खोल दे !
मगर माँ को मैं ये कैसे समझाऊ ,
मैं सोई हूँ , अपने नए कल को अपनी आँखों में दबाए
अब यह सम्भव नही की
कोई मुझे
इस नींद से जगाए !

माँ तुझे मैं कैसे ये बतलाऊ ,
मैं
हर सुख - दुःख ,दर्द से बहुत दूर हूँ ,
उतनी ही दूर
जितनी दूरी पर चाँद मेरे बचपन से था |

मैं निश्चिंत हूँ माँ ,
मैं निश्चिंत हूँ !
क्योकि
अपनी थाह को मैंने ,
अथाह में समा लिया है !
अब धरती और चाँद को ,
अपनी गोद मैं छिपा लिया है !

माँ मैं चल पड़ी हूँ उस राह पर जहाँ सुकून है
शान्ति है ,
उज्जवलता है ,
निर्मलता है ,
यहाँ कोई हलचल नही है ,
हाँ
माँ
कौई हलचल नही है !

बस हैरत मैं हूँ , ये देखकर !
हाँ हैरत मैं हूँ !
यहाँ चाँद ज़मी चूमता और लाशें साँस लेती नज़र आती है |

9 टिप्‍पणियां:

अनिल कान्त ने कहा…

बस हैरत मैं हूँ , ये देखकर !
हाँ हैरत मैं हूँ !
यहाँ चाँद ज़मी चूमता और लाशें साँस लेती नज़र आती है | ...........

बेहतरीन भाव ...मार्मिक रचना .....तारीफ़ के लिए शब्द कम हैं

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

जयंत - समर शेष ने कहा…

"मैं सोई हूँ , अपने नए कल को अपनी आँखों में दबाए
अब यह सम्भव नही की
कोई मुझे
इस नींद से जगाए !"

अति मर्मस्पर्शी... बहुत कड़वा सच भी..
किंतु इतनी नकारात्मक क्यों?
लड़की होना अभिशाप नहीं...
मैं औरत को माँ, देवी और सखा के रूप में देखता हूँ।
हर माँ भी तो आख़िर बेटी थी एक समय...

~Jayant

mark rai ने कहा…

माँ मेरी मुझे जिस छाती से
लगाए सुलाती थी ,
लोरी गाती थी ,
आज उसी छाती को पीट रही है
उठ बेटी !उठ जाना बेटी , बोल रही है.....
......तारीफ़ के लिए शब्द कम हैं.
kuchh meri taraf se bhi ....

निगाहों में उसकी हवस दिखी
बच कर निकल आई
ये हवस तुक्छ बदन की ,
जिंदगी को तार तार करती रही
वह खोजता रहा एक बदन
उस पर दाग लगाने की
याद आई वो रात तब रो पड़ी
निहागो में उसकी हवस दिखी

मोहब्बत का वो चिराग
लगता है बुझ गया
जिससे दुनिया रोशन होनी थी
याद आई वो रात तब रो पड़ी
अब अंधेरे से लगता है डर
उजाले में भी नही मिला कही चैन
नही दीखता वो प्यार
सुना लगे सारा आसमान
मै थक कर बैठ गई
फ़िर याद आई वो रात
मै रो पड़ी

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

रिचा जी,

कविता में दर्द केवल झलकता भर नही बल्कि अपने साथ बहने को मजबूर कर देता है.

एक अच्छी कविता के लिये बधाई.

मुकेश कुमार तिवारी

नवनीत नीरव ने कहा…

paktiyan achchhi ban padi hain jisase abhivyakti spast hai.
ek achhi rachana ki shreni me ise rakha ja sakta hai.
navnit nirav

pooja ने कहा…

bahut badiya haa........
bahut aachi rachna ki haaa apne.......

Unknown ने कहा…

माँ तुझे मैं कैसे ये बतलाऊ ,
मैं
हर सुख - दुःख ,दर्द से बहुत दूर हूँ ,
उतनी ही दूर
जितनी दूरी पर चाँद मेरे बचपन से था

Rishte hi apnepan ka ehsaas dilate hai aur is bahari duniya me kuch rishte apno se bhi khaas ban jate hai, bas rishto ki ehmiyat ko samjhana jaruri hai..........aaj ki naari kamjor nahi hai sirf abhi bhi kabhi kabhi kahin kahin apne ko piche rakhti hai lekin aaj sirf aap jaisi kavitri ki kami hai unke uss dare hue dimaag se is dar ko ek baar kisis tarah bhar nikalna hai.......
Keep it up

सुशील छौक्कर ने कहा…

बहुत ही बेहतरीन लिखा और दर्द से भरा हुआ।
माँ मैं चल पड़ी हूँ उस राह पर जहाँ सुकून है
शान्ति है ,
उज्जवलता है ,
निर्मलता है ,
यहाँ कोई हलचल नही है ,
हाँ
माँ
कौई हलचल नही है !

बहुत ही उम्दा। और हाँ बर्ड बेरिफीकेशन हटा दें। और लगता है शायद आपका ब्लोग ब्लोग वानी पर नही आता है। उधर जाईए वहाँ पाठक ज्यादा मिलेगे।

Reecha Sharma ने कहा…

jyant ji aapka shukriya aur sushil ji mere blog par aage bhi aate rahenge ye main aasha karti hun.