गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

क्यों आज मैंने देखा ?



आज
मैंने
अपने अन्दर
झाँक कर देखा !
एक आदर्श मानवता को
भय से कांपते देखा
जो था बहार वैसा मैं अपने भीतर न था
ऐसा मैंने ख़ुद को ख़ुद से आंक के देखा !

मैंने पुछा अपने मैं से
बतला दो भय तुमको किसका
उसने कहा मुझे जो भय है
तेरे सिवा और हो सके है किसका

आगे उसने यूँ कुछ बोला
अपना था ,हर भेद भी खोला
उसने है मुझे जब जब पुकारा
मैंने था उसको धुतकारा
उसने मुझे पल पल समझाया
लेकिन उसे मैं समझ ना पाया
उसने कहा यह काम ग़लत है
मैंने कहा ये वीरम ग़लत है
उसने हर अन्धकार में मेरे रोशनी के थे दिए जलाए
मैं था पागल मंदबुधि प्राणी
समझ न पाया अपने मैं की वाणी

आज मुझे जब होश है आया
हर भय
दुःख
तकलीफ से मैंने पलभर में ही पार है पाया

पछतावा है मुझको अब ये
इतने दिन बाद क्यों देखा ?

इससे पहले, क्यों नही मैंने अपने अन्दर ऐसे झाँक के देखा ???

7 टिप्‍पणियां:

अनिल कान्त ने कहा…

वाह ऋचा जी....वाह बहुत खूब ...मुझे अच्छी लगी आपकी ये रचना

नवनीत नीरव ने कहा…

vartani aur hijje par dhyan dein to kavita aur bhi prabhavshali banjayegi.Achchhi kavita hai.
Navnit Nirav

Tripti ने कहा…

simply nice..

Sajal Ehsaas ने कहा…

kavita ki shuruvaat aur samaapti sabse mazboot hai

मीत ने कहा…

स्वयं से मुलाकात करवा दी आपने...
इतना अच्छा लिखा है, की क्या कहू..
शब्द नहीं हैं...
मीत

M VERMA ने कहा…

khud ke ander jhakne ka sarthak prayas achchha laga

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

very nice creation....
keep writing great...
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