गुरुवार, 2 अप्रैल 2009
मेरा अस्तित्व
जब भी मैं अपने घर की , चार दीवारों से बाहर झांकती हूँ !
मुझे वो आँखे घूरती है |घूरती है और मुझसे पूछती है,
कहाँ गए वो वादे ? कहाँ है वो इरादे ?
जो बात करते थे तेरे सम्मान की , जो बात करते थे तेरे स्वाभिमान की,
उन वादों इरादों के बाद भी तू कैद है ! कैद है उस जेल में जिसमें तुझे कभी न ख़त्म होने वाली सज़ा मिली है ,
तू बस जी रही है और अपने ही आंसू हँसकर पी रही है|
मगर मैं पूछती हूँ तुझसे,क्या ये इंतज़ार ठीक है ? क्या ये एतबार ठीक है ?
क्या तुझे तेरे जीवन को जीने की इजाज़त दूसरो से मिलेगी ?
क्या तुझ पर हकुमत हमेशा दूसरो की रहेगी? क्या तेरी पहचान दूसरो से बनेगी ?
क्या इसके बिना ये जिंदगी बिल्कुल नही चलेगी ?
वो आंखें मुझे घर की चार- दिवारी ... में भी घूरती है !
घूरती है और बार - बार वही पूछती है , की क्या तेरा कोई अस्तित्व नही ?
क्या तेरा कोई व्यक्तित्व नही ? क्या पहचान है , तेरी !
क्या तू केवल मात्र नाम की देवी है ? या फिर केवल भोग और काम की देवी है?
वो आँखें मुझे शर्मिन्दा करती है , लगता है वो मेरी निंदा करती है!
मेरा इन आंखो की पहुँच से दूर भागने का प्रयास ,
मुझे वाजिब दूरी पर तो लाकर खड़ा कर देता है ,
लेकिन मैं नही जानती क्यों है यह घुटन ? क्यों है मेरे जीवन में संकुचन ?
मैं दौड़ती हूँ , और देखती हूँ ! देखती हूँ , और पाती हूँ !
की यही तो मेरा अस्तित्व है जो पूछ रहा है मुझसे
''कहाँ है तेरी पहचान ? , ''कहाँ है तेरा सम्मान|????????
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23 टिप्पणियां:
जो बात करते थे तेरे सम्मान की , जो बात करते थे तेरे स्वाभिमान की,
उन वादों इरादों के बाद भी तू कैद है ! कैद है उस जेल में जिसमें तुझे कभी न ख़त्म होने वाली सज़ा मिली है ,
तू बस जी रही है और अपने ही आंसू हँसकर पी रही है|......itna dard shaayad kisi rachna me nahi dekha...aapne samucha dard hi pesh kar diya ...kuchh bacha hi nahi...
वो आंखें मुझे घर की चार- दिवारी ... में भी घूरती है !
घूरती है और बार - बार वही पूछती है , की क्या तेरा कोई अस्तित्व नही ?
क्या तेरा कोई व्यक्तित्व नही ? क्या पहचान है , तेरी !
...........Richa apne puri ki puri sanvedna ko jis prakar se sabdo ke roop mein pesh kiya hai wo wakai marmsparsi hai, In tanaiyo ki badaulat hi aaj aap itna acha likh rahi hai, mere khyal se aappko aapna astitva ab apne mein jaroor dekno ko mil raha hoga, apki ka kavitao ki tarifo se aap khud samajh sakti hai.........
Please keep it up...
subhkamnay.....
"क्या तू केवल मात्र नाम की देवी है ? या फिर केवल भोग और काम की देवी है?"
गहरा सवाल... और हम हैं लाजवाब...
मार्मिक और सुन्दर..
"एक दिन बात नयी होगी,
नारी की कैद ख़तम होगी..
अंधेर दमन का मिटाने को,
समानता की सुबह होगी.."
~जयंत
मानता हूँ यह जगह सही नहीं है...
पर आमंत्रण है मेरे ब्लॉग पर नवीनतम कविता पढ़ने का .
आशा करता हूँ इस बार कसौटी पर ठीक (खरा नहीं, अभी तक) उतरुंगा...
http://jayantchaudhary.blogspot.com/2009/04/blog-post_9868.html
~जयंत
kahtein hain ki jo log ke baar bhagte hain wo jindagi bhar bhagte rahte hain.Ab jaroorat hai is baat ki jo galat riwaj hain unka samna kiya jai aur nai shuruat ki jaay.
Navnit Nirav
यहाँ आया तो जज्बातों से सैलाब से टकराया। अलग अलग रंगो के जज्बात। अच्छी पोस्टें और अच्छे फोटो भी। आकर अच्छा लगा।
Bahut sundar abhivyaktiyan..jari rakhe.
word varification hata diya hai .
word varification hata diya hai .
shushil kumar ji mere blog par aane k liye bahut bahut shukriya
Reecha ji really its wonder full fellings and poem...
मेरा इन आंखो की पहुँच से दूर भागने का प्रयास ,
मुझे वाजिब दूरी पर तो लाकर खड़ा कर देता है ,
लेकिन मैं नही जानती क्यों है यह घुटन ? क्यों है मेरे जीवन में संकुचन ?
मैं दौड़ती हूँ , और देखती हूँ ! देखती हूँ , और पाती हूँ !
की यही तो मेरा अस्तित्व है जो पूछ रहा है मुझसे
''कहाँ है तेरी पहचान ? , ''कहाँ है तेरा सम्मान|????????
Bahut gahariyi hai aapki feelings me, entni gahrai ki man ko chhoo jaye...
Badhi...
maanviya vedna ko shbdo ke sang vyakt karna aour vo bhi uske poore nyaay ke saath iske liye chahiye hame apne antartam ki anubhutiya aour anubhavo ki silsilevaar akratiya jo mastishkpatal par esa chitra ubhare jo hame santush karta ho...tab to kavita ka saar he..
aapme vo baat he jo ek rachnakaar me honi chahiye..
umda pryaas he..meri shubhkaamnaye..
मन के अंतर्द्वंद को बखूबी शब्दों में ढाला है आपने ....सचमुच अस्तित्व अगर जिंदा न रहे तो जीना मुश्किल हो जाता है ...स्त्रियों के लिए खास तौर पर
aapne jo likha hai usse pata chalta hai ki aap kewal apne baare main sochti hain. aapki lekhni se pata chalta hai ki aap padi likhi hain lekin aapka swabhimaan aur samman kahi aahat hai... apna samman aur swabhimaan kahi par nahi jata hai balki sirf tab kam hota hai jab aap doosro ka samman aur swabhimaan nahi pehchante. doosro ko samman dekar dekhiye aur sirf apne baare me sochne se zindagi nahi chalti. eisa insaan hamesha akela hi reh jaata hai. I am not a writer but a psychologist. kabhi kabhi blogs dekh leti hu aur kuch accha lagta hai to tippani likh deti hu. please don't mind agar bura laga ho to. bas apne experience se likh diya hai... aur shayad theek hi likha hai. reply kariyega agar baato me kuch sacchai ho. bye. Nafeesa Ali
रिचा जी,
मेरा अस्तित्व ही पूछता है कि मेरी पहचान क्या है?
बहुत ही सुन्दर बात है. नारी के समस्त प्रारुपों पर और उनसे जुड़ी सारी मजबूरियों को रोशन करती हुई रचना.
बधाईयाँ.
मुकेश कुमार तिवारी
aap bahut aacha likhti haa really muje apki har posting aachi lagi haa very gud.........keep it up
aankho ki baat jab bhi aati he aankho me hi samman chhupa hota he.., in aankho ko yaani apni nazar ko apne antartam tak lejaane vaali abhivyakti ke liye jaroor aapki taarif karunga..
umda he, aapki soch aour aapki kalam us soch ko sahi maayane me shbdo ke saath saarthak ho rahi he.
badhaai
Aapke blog per pehli baar aayi....kuch samvedna se bhare hue lamhe bitaye yahan....ab baar baar aaungi is blog per....
Likhte rahiye.....agli baar kuch naya padne ko milega....aisi aasha kerti hun....
All the best....
ये तो कई अनसुलझे सवाल हैं। कौन बदलेगा। वर्कप्लेस से लेकर घर के दरवाजे तक निगाहें ही तो घूरती हैं। मां कहती है बेटी संभलकर रहना और कभी अपने बेटे को नहीं बोलती कि बेटा सड़क पर किसी लड़की के कपड़ों के पार तक निगाह गड़ाने की आदत छोड़ दे। मुश्किल है अस्तित्व की तलाश। इस जीवन में शायद पूरी नहीं होगी।
अपने पहचान और सम्मान पाना है तो उन आँखों से भागने के बजाए उनसे सवाल करना सीखना होगा. उनसे लड़ना सीखना होगा. आपकी रचना सुन्दर लगी.
ye kavita to seedhe dialogue communicate karti hai .. shashakt abhivyakti
badhai sweekar karen ..
dhanyawad
nice poem but technically is poor ...
basic of the poem ... must be malty dimensioned . ok ravi
blz read my blog www.ravindra swapnil.blogspot.com
nice poem but technically is poor ...
basic of the poem ... must be malty dimensioned . ok ravi
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