जब भी मैं अपने घर की , चार दीवारों से बाहर झांकती हूँ !
मुझे वो आँखे घूरती है |घूरती है और मुझसे पूछती है,
कहाँ गए वो वादे ? कहाँ है वो इरादे ?
जो बात करते थे तेरे सम्मान की , जो बात करते थे तेरे स्वाभिमान की,
उन वादों इरादों के बाद भी तू कैद है ! कैद है उस जेल में जिसमें तुझे कभी न ख़त्म होने वाली सज़ा मिली है ,
तू बस जी रही है और अपने ही आंसू हँसकर पी रही है|
मगर मैं पूछती हूँ तुझसे,क्या ये इंतज़ार ठीक है ? क्या ये एतबार ठीक है ?
क्या तुझे तेरे जीवन को जीने की इजाज़त दूसरो से मिलेगी ?
क्या तुझ पर हकुमत हमेशा दूसरो की रहेगी? क्या तेरी पहचान दूसरो से बनेगी ?
क्या इसके बिना ये जिंदगी बिल्कुल नही चलेगी ?
वो आंखें मुझे घर की चार- दिवारी ... में भी घूरती है !
घूरती है और बार - बार वही पूछती है , की क्या तेरा कोई अस्तित्व नही ?
क्या तेरा कोई व्यक्तित्व नही ? क्या पहचान है , तेरी !
क्या तू केवल मात्र नाम की देवी है ? या फिर केवल भोग और काम की देवी है?
वो आँखें मुझे शर्मिन्दा करती है , लगता है वो मेरी निंदा करती है!
मेरा इन आंखो की पहुँच से दूर भागने का प्रयास ,
मुझे वाजिब दूरी पर तो लाकर खड़ा कर देता है ,
लेकिन मैं नही जानती क्यों है यह घुटन ? क्यों है मेरे जीवन में संकुचन ?
मैं दौड़ती हूँ , और देखती हूँ ! देखती हूँ , और पाती हूँ !
की यही तो मेरा अस्तित्व है जो पूछ रहा है मुझसे
''कहाँ है तेरी पहचान ? , ''कहाँ है तेरा सम्मान|????????
1 टिप्पणी:
this poem contains much boldness in it i really appreciate that
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