अरे! यह पागल है , इसे पकडो और सलाखों के पीछे डाल दो
शायद ऐसा ही होता है , किसी भी पागल के साथ ! मगर कभी सोचा है क्यों ?
क्योकि हम अपना चेहरा देखने से कितना डरते हैं |
अरे !बाहर जहाँ हर तरफ़ गंदगी , धोखा ,झूठ फरेब ,और स्वार्थ है ,
जहाँ कदम- कदम पर खून से लथपथ सनी लाशे और उनसे आने वाली सडान रोजाना देखने को मिलती हो ,
उस घुटन से तो वो पागल ही अच्छा है ,जो अपनी दुनिया में ही मस्त रहता है |
जिसके लिए ज़िंदगी और मौत एक बराबर है |जिसमें बहरी दुनिया के लिए कोई हलचल नही है |
अरे! हम जिंदा लाशों से तो वह अबोध पागल ही अच्छा है|
4 टिप्पणियां:
पागलपन बुद्दिमता का दूसरा नाम है। अच्छे-बुरे मेँ भेद बुद्दि करती है और पागलपन ऐसा कोई भेद नहीँ करता।उसके लिए सब समान हैँ।ऐसा समभाव वहीँ होता है जहां बुद्दि की सीमाएँ समाप्त हो जाती हैँ।इस लिए पागल बीतरागी और अजातशत्रु है।
*आपकी रचना अच्छी है।बधाई!
very very deep............
Aisaa kaise likhaa aapne?
Bahut katu saty aur usase bhi katu vyangy!!!
"हम जिंदा लाशों से तो वह अबोध पागल ही अच्छा है"
बिलकुल !!!हम एक आभासी दुनिया में ही तो जीते है.....छल ,कपट और नकली चेहरे ओढे लोगों की दुनिया....सच में पागल हमसे अच्छा है !!
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