अरे! यह पागल है , इसे पकडो और सलाखों के पीछे डाल दो
शायद ऐसा ही होता है , किसी भी पागल के साथ ! मगर कभी सोचा है क्यों ?
क्योकि हम अपना चेहरा देखने से कितना डरते हैं |
अरे !बाहर जहाँ हर तरफ़ गंदगी , धोखा ,झूठ फरेब ,और स्वार्थ है ,
जहाँ कदम- कदम पर खून से लथपथ सनी लाशे और उनसे आने वाली सडान रोजाना देखने को मिलती हो ,
उस घुटन से तो वो पागल ही अच्छा है ,जो अपनी दुनिया में ही मस्त रहता है |
जिसके लिए ज़िंदगी और मौत एक बराबर है |जिसमें बहरी दुनिया के लिए कोई हलचल नही है |
अरे! हम जिंदा लाशों से तो वह अबोध पागल ही अच्छा है|
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मंगलवार, 18 मई 2010
शुक्रवार, 11 सितंबर 2009
मौत .................
मौत नही है ....
कोई कागज़ का टुकडा ,
जिस पर कुछ लिख कर मैं ,
मिटा दूँ !
मौत नही है
धूल का उड़ता हुआ, वो कण
जिसे अपने चेहरे से ,पोंछ कर
मैं मिटादू दूँ !
मौत नही है ,कोई
आकाश का उड़ता हुआ ,पंछी
जिसे पकड़कर सलाखों के पीछे
दबा दूँ !
मौत नही है ,अल्हड़ बचपन
जिसे ममता की छांव तले
मैं सुला दूँ !
मौत नही है
दीवार पे लगा हुआ पोस्टर
जिसे मैं अलग -अलग रंगो से ,
सजा दूँ !
मौत नही है , दिए की डगमगाती हुई लौ
जिसे हवा के तेज़ झोको से ,
मैं बचा लू !
मौत तो जीवन की वो अविरल सच्चाई है !
जो आदि से अंत तक निरंतर चलती आई है !
कोई कागज़ का टुकडा ,
जिस पर कुछ लिख कर मैं ,
मिटा दूँ !
मौत नही है
धूल का उड़ता हुआ, वो कण
जिसे अपने चेहरे से ,पोंछ कर
मैं मिटादू दूँ !
मौत नही है ,कोई
आकाश का उड़ता हुआ ,पंछी
जिसे पकड़कर सलाखों के पीछे
दबा दूँ !
मौत नही है ,अल्हड़ बचपन
जिसे ममता की छांव तले
मैं सुला दूँ !
मौत नही है
दीवार पे लगा हुआ पोस्टर
जिसे मैं अलग -अलग रंगो से ,
सजा दूँ !
मौत नही है , दिए की डगमगाती हुई लौ
जिसे हवा के तेज़ झोको से ,
मैं बचा लू !
मौत तो जीवन की वो अविरल सच्चाई है !
जो आदि से अंत तक निरंतर चलती आई है !
शनिवार, 23 मई 2009
एक कहानी
एक कहानी मैं लिखती हू , एक कहानी तू भी लिख !
बादल बादल मैं लिखती हू ,पानी पानी तू भी लिख|
बीत गई जो अपनी यादें,उन यादों को भी तू लिख!
एक निशानी मैं लिखती हू, एक निशानी तू भी लिख|
इस कलम में डाल के स्याही, लिख दे जो मन में आए!
नई कहानी मैं लिखती हू ,एक पुरानी तू भी लिख |
जीवन की इस भाग दौड़ में, क्या खोया तुमने हमने?
एक जवानी मैं लिखती हू, एक जवानी तू भी लिख |
हर व्यक्ति में छिपा हुआ है,वादी भी प्रतिवादी भी!
सारी सजाए मैं लिखती हू, काला पानी तू भी लिख |
बादल बादल मैं लिखती हू ,पानी पानी तू भी लिख|
बीत गई जो अपनी यादें,उन यादों को भी तू लिख!
एक निशानी मैं लिखती हू, एक निशानी तू भी लिख|
इस कलम में डाल के स्याही, लिख दे जो मन में आए!
नई कहानी मैं लिखती हू ,एक पुरानी तू भी लिख |
जीवन की इस भाग दौड़ में, क्या खोया तुमने हमने?
एक जवानी मैं लिखती हू, एक जवानी तू भी लिख |
हर व्यक्ति में छिपा हुआ है,वादी भी प्रतिवादी भी!
सारी सजाए मैं लिखती हू, काला पानी तू भी लिख |
शुक्रवार, 8 मई 2009
रिश्ता.......
इस ज़िंदगी इस ज़माने में , कोई मिलता है ,कोई बिछड़ता है !
इस मिलने बिछड़ने की कशमकश में ही तो ,कोई न कोई रिश्ता पिछड़ता है!
रिश्ता बनाना तो आसन हो जाता है ,हमारे लिए
फिर क्यों ? वो रिश्ता सिकुड़ता है !
बस ठंड से कापते उस बच्चे की तरह ,वो रिश्ता यूही ठिठुरता है !
उस ठिठुरते रिश्ते पर, कोई और रिश्ता अपने रहमो करम की चादर को तो ढकता है !
लेकिन ..........
फिर भी उस चादर में से बारिश का पानी बूँद बनकर टपकता है !
ज़िंदगी में हर चीज़ को यू आसानी से पा लेना आसन तो नही होता ,
लेकिन ज़िंदगी है ,और इस ज़िंदगी में हर कोई हर किसी चीज़ के लिए भटकता है !
रिश्ता बनने की आस तो हर मन में होती है ,
लेकिन ............
जब रिश्ता टूटता है, तो फिर क्यों एक बूँद आंसू आंख से टपकता है !जी हा बिल्कुल वैसे ही ,
जैसे तेज़ भूख से एक छोटा बच्चा बिलखता है !
यह भूख न जाने कब शांत होगी ? बड़ा मुश्किल सवाल यह लगता है !
और
जीवन मेरा क्यों मुझे एक जंजाल सा लगता है ? इस जंजाल से निकलने को अब मेरा मन भी करता है !
लेकिन .............
रस्मो की दीवारों से फिर मेरा मन क्यों डरता है ?
शायद इसी लिए तो इस मिलने बिछड़ने की कशमकश में कोई न कोई रिश्ता पिछड़ता है !
इस मिलने बिछड़ने की कशमकश में ही तो ,कोई न कोई रिश्ता पिछड़ता है!
रिश्ता बनाना तो आसन हो जाता है ,हमारे लिए
फिर क्यों ? वो रिश्ता सिकुड़ता है !
बस ठंड से कापते उस बच्चे की तरह ,वो रिश्ता यूही ठिठुरता है !
उस ठिठुरते रिश्ते पर, कोई और रिश्ता अपने रहमो करम की चादर को तो ढकता है !
लेकिन ..........
फिर भी उस चादर में से बारिश का पानी बूँद बनकर टपकता है !
ज़िंदगी में हर चीज़ को यू आसानी से पा लेना आसन तो नही होता ,
लेकिन ज़िंदगी है ,और इस ज़िंदगी में हर कोई हर किसी चीज़ के लिए भटकता है !
रिश्ता बनने की आस तो हर मन में होती है ,
लेकिन ............
जब रिश्ता टूटता है, तो फिर क्यों एक बूँद आंसू आंख से टपकता है !जी हा बिल्कुल वैसे ही ,
जैसे तेज़ भूख से एक छोटा बच्चा बिलखता है !
यह भूख न जाने कब शांत होगी ? बड़ा मुश्किल सवाल यह लगता है !
और
जीवन मेरा क्यों मुझे एक जंजाल सा लगता है ? इस जंजाल से निकलने को अब मेरा मन भी करता है !
लेकिन .............
रस्मो की दीवारों से फिर मेरा मन क्यों डरता है ?
शायद इसी लिए तो इस मिलने बिछड़ने की कशमकश में कोई न कोई रिश्ता पिछड़ता है !
गुरुवार, 30 अप्रैल 2009
क्यों आज मैंने देखा ?
आज
मैंने
अपने अन्दर
झाँक कर देखा !
एक आदर्श मानवता को
भय से कांपते देखा
जो था बहार वैसा मैं अपने भीतर न था
ऐसा मैंने ख़ुद को ख़ुद से आंक के देखा !
मैंने पुछा अपने मैं से
बतला दो भय तुमको किसका
उसने कहा मुझे जो भय है
तेरे सिवा और हो सके है किसका
आगे उसने यूँ कुछ बोला
अपना था ,हर भेद भी खोला
उसने है मुझे जब जब पुकारा
मैंने था उसको धुतकारा
उसने मुझे पल पल समझाया
लेकिन उसे मैं समझ ना पाया
उसने कहा यह काम ग़लत है
मैंने कहा ये वीरम ग़लत है
उसने हर अन्धकार में मेरे रोशनी के थे दिए जलाए
मैं था पागल मंदबुधि प्राणी
समझ न पाया अपने मैं की वाणी
आज मुझे जब होश है आया
हर भय
दुःख
तकलीफ से मैंने पलभर में ही पार है पाया
पछतावा है मुझको अब ये
इतने दिन बाद क्यों देखा ?
इससे पहले, क्यों नही मैंने अपने अन्दर ऐसे झाँक के देखा ???
भूख .....
किसी ने मुझसे पूछा , भूख क्या होती है ?
तो मैंने कहा ......
अमीर को अपनी अमीरी बढाने की भूख ,
गरीब को अपनी फकीरी घटने की भूख ,
व्यक्ति को व्यक्ति दबाने की भूख ,
उनके हाथो की रोटी छीनकर खाने की भूख ,
एक प्रेमी को है ,सच्चा प्यार पाने की भूख ,
अपना सर्वस्व उस पर लूटाने की भूख |
सच यही तो है, इस पागल ज़माने की भूख !
अपनी इस भूख में सब भूल जाने की भूख !
एक बच्चे को माँ का दूध पाने की भूख
उसकी छाया में सब भूल जाने की भूख
शक्ति से शक्ति बढाने की भूख
इस अंधेरे में सबको काटकर खाने की भूख |
सच यही तो है ,इस पागल ज़माने की भूख !
अपनी इस भूख में सब कुछ भूलाने की भूख !
लेखक को शब्द जोड़कर रखने की भूख ,
नेता को शब्द तोड़कर बकने की भूख ,
रेगिस्तान में प्यासे को एक बूँद चखने की भूख ,
एक भूखे को भूखे पर लात रखने की भूख |
समाज में औरत को नोंच कर खाने की भूख ,
स्त्री को अपना मान बचाने की भूख ,
किसी को है ,इज्ज़त कमाने की भूख ,
किसी को है इज्ज़त गवाने की भूख |
सच यही तो है इस पागल ज़माने की भूख !
अपनी इस भूख में सब कुछ भूलाने की भूख !
शायद मैं उसे समझा पाई हूँ , की क्या होती है भूख ?
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
सिर्फ़ तुम .........
एक निर्मल ,कोमल, प्यारा ,एहसास हो तुम
जीवन के मरू की तीव्र प्यास हो तुम !
बेचैनी का सुकून हो तुम
इस जीवन का जुनून हो तुम
एक नन्हें प्यारे बचपन सा एहसास हो तुम !
* आवेग का बहता निश्छल नीर हो तुम
किसी डूबते को थामता तीर हो तुम !
प्रेम का आगाध सागर हो तुम !
एक अल्हड़ ,चंचल , बचपन की गागर हो तुम !
एक साधक की आस्था हो तुम !
जीवन की असीम पराकाष्ठा हो तुम !
प्रात: कालीन भोर हो तुम
चाँद और चकोर हो तुम !
बंसी की तान हो तुम
सभी सुरों का गान हो तुम !
सम्पूर्णता का समग्र ज्ञान हो तुम
अपने अस्तित्व का सम्मान हो तुम !
उस दिए का प्रकाश हो तुम !
मेरा सारा आकाश हो तुम !
एक आस हो तुम एहसास हो तुम !
इस दुनिया में कुछ ख़ास हो तुम !
मेरे दिल के कितने पास हो तुम !
एक बेबस का इमान हो तुम !
एक पंछी की उड़ान हो तुम !
और बस इतना ही की मेरे जीवन की पहचान हो तुम !!
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