रविवार, 6 अप्रैल 2008

कविता संग्रह भाग- १ (एक कहानी)

एक कहानी मैं लिखती हू , एक कहानी तू भी लिख !
बादल बादल मैं लिखती हू ,पानी पानी तू भी लिख|

बीत गई जो अपनी यादें,उन यादों को भी तू लिख!
एक निशानी मैं लिखती हू, एक निशानी तू भी लिख|

इस कलम में डाल के स्याही, लिख दे जो मन में आए!
नई कहानी मैं लिखती हू ,एक पुरानी तू भी लिख |

जीवन की इस भाग दौड़ में, क्या खोया तुमने हमने?
एक जवानी मैं लिखती हू, एक जवानी तू भी लिख |

हर व्यक्ति में छिपा हुआ है,वादी भी प्रतिवादी भी!
सारी सजाए मैं लिखती हू, काला पानी तू भी लिख |

लम्बी कविता - मेरा अस्तित्व

जब भी मैं अपने घर की , चार दीवारों से बाहर झांकती हूँ !
मुझे वो आँखे घूरती है |घूरती है और मुझसे पूछती है,
कहाँ गए वो वादे ? कहाँ है वो इरादे ?

जो बात करते थे तेरे सम्मान की , जो बात करते थे तेरे स्वाभिमान की,
उन वादों इरादों के बाद भी तू कैद है ! कैद है उस जेल में जिसमें तुझे कभी न ख़त्म होने वाली सज़ा मिली है ,
तू बस जी रही है और अपने ही आंसू हँसकर पी रही है|
मगर मैं पूछती हूँ तुझसे,क्या ये इंतज़ार ठीक है ? क्या ये एतबार ठीक है ?
क्या तुझे तेरे जीवन को जीने की इजाज़त दूसरो से मिलेगी ?
क्या तुझ पर हकुमत हमेशा दूसरो की रहेगी? क्या तेरी पहचान दूसरो से बनेगी ?
क्या इसके बिना ये जिंदगी बिल्कुल नही चलेगी ?

वो आंखें मुझे घर की चार- दिवारी ... में भी घूरती है !
घूरती है और बार - बार वही पूछती है , की क्या तेरा कोई अस्तित्व नही ?
क्या तेरा कोई व्यक्तित्व नही ? क्या पहचान है , तेरी !

क्या तू केवल मात्र नाम की देवी है ? या फिर केवल भोग और काम की देवी है?
वो आँखें मुझे शर्मिन्दा करती है , लगता है वो मेरी निंदा करती है!

मेरा इन आंखो की पहुँच से दूर भागने का प्रयास ,
मुझे वाजिब दूरी पर तो लाकर खड़ा कर देता है ,
लेकिन मैं नही जानती क्यों है यह घुटन ? क्यों है मेरे जीवन में संकुचन ?
मैं दौड़ती हूँ , और देखती हूँ ! देखती हूँ , और पाती हूँ !
की यही तो मेरा अस्तित्व है जो पूछ रहा है मुझसे
''कहाँ है तेरी पहचान ? , ''कहाँ है तेरा सम्मान|????????

दोस्ती

कितनी अजीब है , ये दोस्ती !
दो आत्माओ के बीच , एक शरीर है , ये दोस्ती !
एक अनोखा बन्धन है , दोस्ती
मेरे शरीर की धमनियों का स्पंदन है , ये दोस्ती !
मेरी मित्र है वो पर , दुनिया से थोडी विचित्र है , वो
जिस पर दुनिया की नज़र है, उसके लिए वो बिल्कुल बेअसर है|
हर चीज़ पर उसकी पकड़ है , हर किसी पर उसकी जकड है|
मैं देखकर उसे जी लेती हूँ !
और कभी - कभी अपने ही आंसू ,
हँसकर पी लेती हूँ!
उसके विचारो से लगता है ,ये आधी ज़मी भी मेरी है
ये आधा आसमा भी मेरा है और व्यक्ति जब ये ठान ही ले ,
तो कर लेता हर जगह सवेरा है!
मैं हर नई सुबह जागती हूँ ,
और कॉलेज में उससे मिलने को भागती हूँ ,
अपनी बात बताती हूँ उसे, उसकी
बात समझ जाती हूँ मैं!
हर चीज़ में संतुष्टि समाई है उसकी ,हर चीज़ में नाज़कात उभर के आई है उसकी
इस दिल की अभिलाषा इतनी ,
बन पाऊ परछाई उसकी !
बहुत सुंदर उसकी काया है, उससे भी सुंदर छाया है!
कुदरत की अदभुत माया है ,और बस इतना ही
की अपने जीवन का सच्चा आदर्श मैंने, उसी में पाया है!
उसके बोल मेरी आत्मा में घुलके, जीने की तमन्ना पैदा करते है ,
वो कहती रहे मैं सुनती रहू खुदा से बस इतनी ही दुआ करते है !
वो एक ऐसा दर्पण है ,जिसपर मेरा सर्वस्व समर्पण है ,
ईश्वर पर चढ़े उस फूल की तरह ये जीवन उसको अर्पण है!
मैं जैसी अपने भीतर हूँ वैसे ही ख़ुद को पाती हूँ ,
अपने भीतर की कमियों को सहजता से जान जाती हूँ
मैं शुक्रगुजार हूँ उसकी जिसने दोस्ती जैसी चीज़ बनाई ,
ये दोस्ती उतनी ही पाक है ,जितनी खुदा की खुदाई,
इस दुनिया में बहुत खुश नसीब हूँ मैं जो तुम जैसी मैंने दोस्त है पाई !

नेता बड़े महान है .....

हमारे नेता बड़े महान है .....
पूरा देश इनसे परेशान है, फिर भी इन्हे मिलता खूब सम्मान हैं ,
यह केवल पाँच साल के मेहमान है ,
फिर भी हमारे नेता बड़े महान हैं |

देश को कंगाल बनने में, दंगे रोज कराने में ,
पैसा देश का दबाने में और बातों का खूब खाने में ,
यह समझे अपनी शान है ,
फिर भी हमारे नेता बड़े महान है |

ये घोटालों की खान है ,
चलते फिरते शैतान है ,
फिर भी हमारे नेता बड़े महान है |

जनता की लेते जान है, करते उनको परेशान है ,
पैसो में अटकी जान है और
कुर्सी सबसे बलवान है ,
फिर भी हमारे नेता बड़े महान है |

प्रोसीडिंग्स को रुकवाने में ,लोगो का मॉस चबाने में
और
सेहत को बनने में ,लगाते अपनी जान है ,
फिर भी ये नेता बड़े महान है |


चारे को खूब चबाने में, कफ्नों की बोली लगाने में ,
रक्षा सौदों में लाभ कमाने में ,
केवल ये चतुर घड़ियाल है ,
फिर भी ये नेता बड़े महान हैं |

महल इनके बड़े आलीशान है,
जिसकी
दीवारों में गंदी खून की सडान है ,
लेकिन ये बड़े धनवान है ,
फिर भी ये नेता बड़े महान है |

मौत ..........



मौत नही है ....
कोई कागज़ का टुकडा ,
जिस पर कुछ लिख कर मैं ,
मिटा दूँ !

मौत नही है
धूल का उड़ता हुआ, वो कण
जिसे अपने चेहरे से ,पोंछ कर
मैं मिटादू दूँ !

मौत नही है ,कोई
आकाश का उड़ता हुआ ,पंछी
जिसे पकड़कर सलाखों के पीछे
दबा दूँ !

मौत नही है ,अल्हड़ बचपन
जिसे ममता की छांव तले
मैं सुला दूँ !

मौत नही है
दीवार पे लगा हुआ पोस्टर
जिसे मैं अलग -अलग रंगो से ,
सजा दूँ !

मौत नही है , दिए की डगमगाती हुई लौ
जिसे हवा के तेज़ झोको से ,
मैं बचा लू !

मौत तो जीवन की वो अविरल सच्चाई है !
जो आदि से अंत तक निरंतर चलती आई है !

शनिवार, 5 अप्रैल 2008

जीवन..........



जीवन उस पथ का नाम है ,
जिसे हम संघर्ष कहते है !
इस संघर्ष के परिणाम को ही ,
हम इस जीवन का मर्म कहते है |

इस जीवन का एक साथी भी है ,
जिसे शायद हम धर्म कहते है !
इस धर्म पर चलने को ही हम ,
जीवन का सबसे बड़ा कर्म कहते है |

लेकिन आजके सन्दर्भ में .......

धर्म तो वह शाला है जहाँ
शिक्षा है ,केवल ज्ञान की
लेकिन फिर भी गठरी भरती
केवल बेईमान इन्सान की |

जीवन में इन्सान तो वो है ,
जिसमें इंसानियत बाकी हो !
लेकिन आज तो इन्सान वो है ,
जिसकी हैवानियत साथी हो |

जीवन में हैवानियत तो वह है ,
जिसमें पशुता कूट कूट कर भरी हो ,
लेकिन पशुता सिर्फ़ वह है ,जिसमें
भूख प्यास सनी हो |

भूख और प्यास केवल
दरिद्रता की ही धनी है !
और दरिद्रता की आड़ में ही तो
ये शान -ओ -शौकत पली है |

शान -ओ -शौकत की ये आन्धिया
तो खूब चली है !
लेकिन टिक न सकी ये चार दीवारे ,
जो आज स्वर्ण और खून से बनी है |

इन चार दीवारों में भी तो ,
लोहे की सलाखे लगी है ,और
साथ में ही तो लोगो की कुछ
परछाईया भी तो टंगी है |

ये परछाईया तो खामोशी के रंगो
से यू रंगी है ,
जिन खामोशियों से जीवन की ये ,
सुनहरी खुशनुमा चित्रपट कोरी सनी है ||

सिर्फ़ तुम .........


एक निर्मल ,कोमल, प्यारा ,एहसास हो तुम
जीवन के मरू की तीव्र प्यास हो तुम !
बेचैनी का सुकून हो तुम
इस जीवन का जुनून हो तुम
एक नन्हें प्यारे बचपन सा एहसास हो तुम !

* आवेग का बहता निश्छल नीर हो तुम
किसी डूबते को थामता तीर हो तुम !
प्रेम का आगाध सागर हो तुम !
एक अल्हड़ ,चंचल , बचपन की गागर हो तुम !

एक साधक की आस्था हो तुम !
जीवन की असीम पराकाष्ठा हो तुम !
प्रात: कालीन भोर हो तुम
चाँद और चकोर हो तुम !

बंसी की तान हो तुम
सभी सुरों का गान हो तुम !
सम्पूर्णता का समग्र ज्ञान हो तुम
अपने अस्तित्व का सम्मान हो तुम !

उस दिए का प्रकाश हो तुम !
मेरा सारा आकाश हो तुम !
एक आस हो तुम एहसास हो तुम !
इस दुनिया में कुछ ख़ास हो तुम !
मेरे दिल के कितने पास हो तुम !

एक बेबस का इमान हो तुम !
एक पंछी की उड़ान हो तुम !
और बस इतना ही की मेरे जीवन की पहचान हो तुम !!

गुरुवार, 3 अप्रैल 2008

रिश्ता.......



इस ज़िंदगी इस ज़माने में , कोई मिलता है ,कोई बिछड़ता है !
इस मिलने बिछड़ने की कशमकश में ही तो ,कोई न कोई रिश्ता पिछड़ता है!
रिश्ता बनाना तो आसन हो जाता है ,हमारे लिए
फिर क्यों ? वो रिश्ता सिकुड़ता है !
बस ठंड से कापते उस बच्चे की तरह ,वो रिश्ता यूही ठिठुरता है !
उस ठिठुरते रिश्ते पर, कोई और रिश्ता अपने रहमो करम की चादर को तो ढकता है !
लेकिन ..........
फिर भी उस चादर में से बारिश का पानी बूँद बनकर टपकता है !
ज़िंदगी में हर चीज़ को यू आसानी से पा लेना आसन तो नही होता ,
लेकिन ज़िंदगी है ,और इस ज़िंदगी में हर कोई हर किसी चीज़ के लिए भटकता है !
रिश्ता बनने की आस तो हर मन में होती है ,
लेकिन ............
जब रिश्ता टूटता है, तो फिर क्यों एक बूँद आंसू आंख से टपकता है !जी हा बिल्कुल वैसे ही ,
जैसे तेज़ भूख से एक छोटा बच्चा बिलखता है !
यह भूख न जाने कब शांत होगी ? बड़ा मुश्किल सवाल यह लगता है !
और
जीवन मेरा क्यों मुझे एक जंजाल सा लगता है ? इस जंजाल से निकलने को अब मेरा मन भी करता है !
लेकिन .............
रस्मो की दीवारों से फिर मेरा मन क्यों डरता है ?
शायद इसी लिए तो इस मिलने बिछड़ने की कशमकश में कोई न कोई रिश्ता पिछड़ता है !

भूख .....



किसी ने मुझसे पूछा , भूख क्या होती है ?
तो मैंने कहा ......

अमीर को अपनी अमीरी बढाने की भूख ,
गरीब को अपनी फकीरी घटने की भूख ,
व्यक्ति को व्यक्ति दबाने की भूख ,
उनके हाथो की रोटी छीनकर खाने की भूख ,
एक प्रेमी को है ,सच्चा प्यार पाने की भूख ,
अपना सर्वस्व उस पर लूटाने की भूख |

सच यही तो है, इस पागल ज़माने की भूख !
अपनी इस भूख में सब भूल जाने की भूख !

एक बच्चे को माँ का दूध पाने की भूख
उसकी छाया में सब भूल जाने की भूख
शक्ति से शक्ति बढाने की भूख
इस अंधेरे में सबको काटकर खाने की भूख |

सच यही तो है ,इस पागल ज़माने की भूख !
अपनी इस भूख में सब कुछ भूलाने की भूख !

लेखक को शब्द जोड़कर रखने की भूख ,
नेता को शब्द तोड़कर बकने की भूख ,
रेगिस्तान में प्यासे को एक बूँद चखने की भूख ,
एक भूखे को भूखे पर लात रखने की भूख |

समाज में औरत को नोंच कर खाने की भूख ,
स्त्री को अपना मान बचाने की भूख ,
किसी को है ,इज्ज़त कमाने की भूख ,
किसी को है इज्ज़त गवाने की भूख |

सच यही तो है इस पागल ज़माने की भूख !
अपनी इस भूख में सब कुछ भूलाने की भूख !

शायद मैं उसे समझा पाई हूँ , की क्या होती है भूख ?